गजल
जु्गल किशोर
हिन्दी अधिकारी
कुछ न कुछ कहने की आदत में बनते को बिगाड. सकते है ।
सरे बाजार में ये आपकी इज्जत की टोपी उतार सकते है।
अब कहां तक बचा के रखें हम अपना दाम चुगलखोरों से,
ठान लें तो शरीफों के सम्मान की बखिया उधाड़ सकते हैं।
होते है जो दिल से पाक साफ, उन्हे डर किस बात का भला
कुछ कहने की आदत में तो वो फकत खेखी बघाड़ सकते है ।
रावण के रूप मे कलयुगी इंसान ये , कुछ तो असर दिखाएगें ,
औरों का बुरा चाहने वाले क्या अपना जीवन संवार सकते है ।
हर युग में सीता को भी अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ाता है ,
राई का पहाड़ बनाने वाले क्या अपना चेहरा निहार सकते है,
झूठ के बल पर दम भरने वाले चल सकते है कहां तक भला
‘किशोर’ विश्वास के सहारे तो पूरी जिन्दगी गुजार सकते है ।